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साहित्यकार इंदु सिन्हा की लघुकथा “परसाद”

साहित्यकार इंदु सिन्हा की लघुकथा “परसाद”

लघु कथा

इंदु सिन्हा, साहित्यकार, रतलाम[divider]

[dropcap][/dropcap]खमी ने ब्याह के बाद ससुराल में पाँव धरा ही था कि रिश्ते में छोटे देवर ने ठिठौली की जरा भैया को कसके रखना। भैया को दो काम ज्यादा आते हैं, देसी दारू पीना और खेतन में रास रचाना हाँ। कहके बड़े ही जोर से हँस दिया देवर। उसे ना जवाब देते बना ना चुप रहते अजीब सा लगा। 
सारा दिन समाज के रिवाज, पूजा पाठ, मुँह दिखाई की रस्म। पूरा शरीर अकड़ने लगा बैठे-बैठे। कब टेम मिले तो घड़ी भर कमर सीधी हो। फिर खाना पीना, हँसी.ठट्टा।
सब कारज खत्म हुऐ तो रिश्ते की ननद ने उसे उठाया और कहा तनिक मुँह हाथ धोओ भौजी, फिर रात में जागना ही है।
जहाँ कोठरी में उसे पहुंचाया वहां लालटेन जल रही थी। एक खाट पर छींट की चादर बिछी थी। कोने में एक तश्तरी में गुड़ की दो ढे़ली और पानी के दो गिलास रखे थे।
दो पल बाद दरवाजा खुला और उसका मरद नानू अंदर आया। वो अधिक गठरी सी बन गयी। घूंघट अधिक खिंच गया। 
अरे ये क्या। नानू ने साँकल बन्द की। 
अरे अब कौन हम पराये मरद हैं भगा के लाये हैं क्या अब तो पूरा हक तुम्हारे हाड.माँस पर हम ही का है। अरे काहे की शरम हटाओ ये सब। कहता हुआ नानू उसके कपडे अलग करने में जुट गया। 
यही होता है ना प्यार, औरत और मरद का। इसी के लिए शादी ब्याह। घिन आती है। ना दुलार ना बात बस खजेले कुत्ते जइसा हाड नोंचना। खैर तकदीर फूटी अब तो क्या करें  
उसका मरद का घर भर में दूसरा नम्बर था। बड़ी बहन का ब्याह हो गया था। दो देवर खेती बाड़ी से लगे थे। सास.ससुर थे। उसका मरद खेती.बाड़ी में हाथ ना बँटा के आधा दिन दारू के नशे में झूमता। घर वालों ने सोचा शादी के बाद सुधरेगा पर यहाँ भी लच्छन नहीं दिखते। 
सालों.साल पेट में बच्चा। जैसे कुत्ता बिल्ली हों। घर भर परेशान। 
एक रात नानू जो घर से भगाए फिर लौट के नहीं आया। लखमी को क्या फर्क पड़ने का। था भी किस काम का। दो टेम की रोटी तो दे न सकता उलटे रात में माँस नोचने आ जाता। लखमी फूटे करम को कोसती। बच्चों के पेट के लिए रोटी की जुगाड़ करती रही और फटी धोती के पैबन्द गिनती रहती। 
लगभग दो वर्ष बाद गाँव की तलैया के किनारे एक महात्मा ने अपनी कुटी बनायी। गाँव के लोग दौड़े। महात्मा की गण्डा.तावीज करते, बीमारी का इलाज करते। गाँव के लोग भक्त हो गये उनके महात्मा जी एक ही पंक्ति गातेरू. 
माया महाठगिनी हम जानी ।
माया मोह दुःखो का डेरा ।।
कुछ समय बाद गाँव वासी तलैया वाले महात्मा को पहचान गये कि गाँव से भागा हुआ नानू था, जो महात्मा बन बैठा। नानू ने बताया .घर छोड़कर जाने के बाद वो मथुरा गया जहां उसे एक साधुओं की टोली मिली। उसने साधुओं के साथ भगवान जी की अपने रक्त से आराधना की। दो माह खड़े होकर तप किया तो भगवान प्रसन्न हुए। सपने में दर्शन देकर कहा . गृहस्थी का झझंट छोड़कर जनसेवा करो। तब से भगवान जी का आदेश पूरा कर रहे हैं। नानू की बात सुनकर गाँव वाले तलैया वाले महात्मा की जय जयकार कर उठे। 
धन भाग हमारे चरण पड़े आपके गृहस्थी को छोड़ माया के बंधन को तोड़ भगवान भजन में रमना हँसी खेल है क्या
एक दिन गाँववासी लखमी के पास गये। बोले.लखमी धनभाग तेरे, ऐसा महात्मा पति मिला जीते जी गृहस्थी के बंधन से दूर हो गये। लखमी को ये सब ढोंग लगता कि नानू जैसा आदमी सुधर कैसे गया
एक दिन रात के दो बजे दरवाजे की साँकल बजी। लखमी ने सोचा इतनी रात गये कौन हो सकता है दरवाजा खोला तलैया वाले महात्मा थे।लखमी को ठेलकर महात्माजी अन्दर आये। लखमी बोली महात्माजी आप,
अरी लखमी काहे का महात्मा! तेरे लिए वही नानू हँ मैं। तूने बड़े दुख झेले हैं। कहते.कहते महात्मा ने लखमी को खाट पर लिटा दिया और उनके हाथ लखमी के कपड़े अलग करने लगे। 
लखमी चीखी अरे। ये क्या पाप है। आप ठहरे महात्मा। गृहस्थी के बंधन से मुक्त कहाँ कीचड़ में.अरी काहे का बंधनए कैसा कीचड़ तन के साथ वासना तो रहेगी ना पगली। ये भी ना जाने तू 
लखमी चुप जी भर के महात्मा ने तन की प्यास बुझाई। फिर बोले अरी अब तो मैं हूँ ही। ले रख थोड़े रुपये बच्चों को दुध पिलाना।कहकर महात्मा जी चले गये। 

कुछ समय बाद लखमी ने महात्मा की पोल खोली कि ढोंगी है। रात में अपने मन की करने आते हैं। गाँव वाले भड़क गये। बोले . अरे तन की भूख तो घरवाली से मिटाई कोई पतुरिया के पास तो ना ही गया बेचारा। गाँव वालों को भी अपने विरोध में खड़ा देख लखमी का सारा गुस्सा बैठ गया अब क्या करें
महात्माजी उसके पास आते रहे। कुछ ना कुछ भेंट दे जाते। गाँव वाले भी श्रद्धा भक्ति से चरणों में कुछ ना कुछ भेंट करते रहते।
यह सिलसिला सालों चला। उसके बाद तलैया वाले बाबा ऐसे गायब हुए फिर लौट के नहीं आये। दे गये लखमी को परसाद के रुप में दो बच्चे और।

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